अजय कुमार की कवितायें
(अजय कुमार पिछले 60 वर्षों से
लिखते चले आ रहे हैं। अब तक उनकी कविताओं का कोई संग्रह नहीं आया है लेकिन जनसंस्कृति मंच द्वारा
उनका संग्रह जल्द ही आने को तैयार है। उनकी पाण्डुलिपि से प्रस्तुत हैं कुछ कवितायें।
प्रस्तुत करने के लिए कोई टिप्पणी नहीं, बस एक अनुरोध कि इन कविताओं को जरूर पढ़िये। जरूरी हो तो बार-बार। और हमें
भी बताइये कि कैसा और किस कदर विस्तृत-आत्मिक है अजय कुमार का रचना संसार।)
श्रीनगर में चाँदनी
चाँद एक साज़ है
और चाँदनी
एक आवाज़ है
सुरीली
मधुर
मदमाती
पागल बनाती
पहाड़ों से टकराती
गूँजती
कोहरे पर बिछल
बिछल जाती
चिनारों से
टकराती
चारागाहों पर
खनखनाती।
आज इस घाटी पर
संगीत का राज है
ख़ामोशी से सज
रहा
स्वरों का सामराज
है।
चाँद एक साज़ है
और चाँदनी एक
आवाज़ है।
जिससे युग-युग से भाई का नाता है
फिर लुटा पड़ोसी
का घर
उसकी यानी मेरी
बहन का सरबस
वो कटे पड़े हैं
सर
वो जो जलाया गया
सरे बाज़ार
स्कूटर नहीं
दुकान नहीं
आदमी था
मरने के पहले चीख़ा था
तड़पा भी था मगर
सदा उसकी
रही बेअसर
यही वाक़या
दोहराया गया
गली-गली शहर-शहर।
उस बार भी यही
हुआ था।
वह भी मेरा पड़ोसी
था
उसको भी उन्होंने
दुश्मन कहा था
मेरा कलेजा चाक किया था
बंगाल और पंजाब
को बाँट दिया था
सिंध बलूच पख़्तून
को अलग किया था
देश में परदेश
गढ़ा था।
मालिक छोड़ सारा
नाटक यही था
यही दर्शक,
यही अभिनेता
मंज़र यही था
देश बँटने के पहले भाई-भाई से लड़ा था।
उस वक्त़ तो खैर मैं बच्चा था
इस वक्त़ क्या कर
रहा था
जो बोई जा रही थी
नफ़रत
जब दिलों में बीज
फूट का पड़ा था।
मैं अकेला ही सही
अकेला ही क्यों
नहीं
इस आग में कूद
पड़ा था
सैंतालिस हो या
सत्तावन
बासठ रहा हो या
बहत्तर
अस्सी हो या
चौरासी
साल-दर-साल
जब भी खून माँगती
थी दोस्ती
मैं कहाँ खड़ा था?
डर या फ़र्ज़ में
कौन बड़ा था?
क्यों जान कर
अनजान बना था?
किस गफ़लत में पड़ा
था?
क्यों नहीं देख
रहा था
कि खून के सागर
में तैरा कर लाया गया
सत्ता का जो जहाज
उसकी ऊँची मीनार
पर कौन खड़ा था?
कौन बाँटता है
मुझको?
कौन मुझे ख़ुद से
लड़वाता है?
किस की
सुख-सम्पत्ति की ख़ातिर
देश टूटता जाता
है,
वो ही दुश्मन बन
जाता है
जिससे युग-युग से
भाई का नाता है
धरती से रहने
वालों का
यह कैसा कच्चा
नाता है?
इस मिट्टी से
उगकर कोई
कैसे इस मिट्टी
से कट जाता है?
देश बात-बात में
कैसे बँट जाता है?
जिसका इस मिट्टी
से
ख़ून पसीने का
नाता है
किसके एक इशारे
पर
इस मिट्टी का
दुश्मन बन जाता है
जिस मिट्टी से
जनमें लोगों में
युग-युग से भाई
का नाता है।
ऐ निशात के ज़ीनों! तुमको याद तो होगा
इक सलाम कह देना
उस मदीना अख़्तर से
अरसा हुआ
मेरे प्यारे
दोस्त ‘होश’ ने
तुम्हें सलाम
भेजा था
निशात के ज़ीनों
के मरफ़त
तब तुम्हारी
तस्वीर बनी थी मन में
एक ताज़ा टटके फूल
सी
आज
‘इंडिपेन्डेंट
इनीशियेटिव ऑन कश्मीर’
की रिपोर्ट में
कश्मीरी औरतों के साथ
फ़ौजियों के
बलात्कार की बात पढ़कर
श्रीनगर में देखे
पीले बीमार भावशून्य चेहरों के बजाय
ज़ेहन में उभरती
है तुम्हारी अदेखी तस्वीर
एक बच्ची के साथ
ज़िना करते
सिपाहियों की
तस्वीर
(बच्चों के साथ भी
जिना करते ही हैं
पागल, वहशी और बीमार)।
निशात के ज़ीनों
पर नज़र आ रहे हैं
ख़ून के दाग
कैसे सलाम कहूँ
किससे पयाम भेजूँ
तुम्हें मदीना अख़्तर
और कैसे कलाम
करूँ
फ़ौजी क़वायत करते
अपने मुल्क के
हुक्मरानों से
जो पिछले अट्ठाइस बरसों से
तोते की तरह
दुहरा रहे हैं
सिर्फ ‘एकता और अखण्डता’
और बढ़ती जा रही
है
दिलों के बीच
दूरी
टुकड़े टुकड़े हो
चुकी है एकता
खंड खंड हो चुकी
है अखंडता।
नज़र आ रहा है
सब तीन सौ साल
पुराना मंज़र
बन रही हैं
बढ़ रही हैं कौमें
लहर दर लहर उठ
रहा है ज्वार
काँप रहा है
चट्टान सा अडिग
दिल्ली दरबार।
किसने कहा था
मुल्क को
रंग-बिरंगे फूलों
का गुलदस्ता?
इसे क़ौमों की क़ौम
कहने वाले
योजना के तहत
परोस रहे हैं
विघटन और
देशभक्ति।
सन तिरसठ में
संविधान की धारा उन्नीस में
संशोधन कर
अलगाव के
प्रोपगंडा का अधिकार छीन
गुलदस्ते को फूल
साबित करने पर आमादा
भारत भाग्य
विधाता देख रहे होंगे
लोगों की ज़ुबान
पर ताले लगा कर
बंद नहीं किये जा
सकते विचारों के द्वार!
बंगाल के बँटवारे
पर गूंजी थी कभी
गुरुदेव की गुरु
गंभीर वाणी
‘एइ बांग्लार माटी,
एइ बांग्लार जोल
एक होबे, एक होबे हे भोगवान’।
जो ताकत से नहीं
कर सका कर्ज़न
मुस्कराकर कर गया
माउन्टबेटन।
फिर बँटवारे के
कगार पर है एक बार
फ़रीद और नानक का
वतन।
देशी-विदेशी
पूँजी के शिकंजे में
कराह रहा है
क़ौमों का दर्द।
कश्मीरी क़ौम के
बँटने का दर्द सुनेगा कौन?
किसे फ़िकर है कि
बाहर से बँटा कश्मीर
भीतर से भी बँटना
शुरु हो गया है।
जब कोई बंगाली
नहीं-पंजाबी नहीं
यहाँ तक कि
हिन्दुस्तानी भी नहीं
सिर्फ़ हिन्दू या मुसलमान है
कोई कश्मीरी ही
कैसे रह सकेगा
और फिर कितने
दिन।
मुझे नहीं मालूम
लल्लद्यद कौन थीं
क्या थे नंदु रुसी
हिन्दू या
मुसलमान?
कश्मीरी
या सिर्फ़
मुसलमान था
जैनुल आब्दीन?
कौन से गीत गाये थे हब्बा ख़ातून ने
मज़हब या मोहब्बत
के?
और मज़हब भी
क्या फ़क़त मोहब्बत
ही नहीं है?
यह कैसी दीवार
खड़ी हो रही है
शंकराचार्य और
तख़्ते सुलेमाँ के दरमियाँ?
जवाब नहीं देंगे ब्लैक कैट कमांडो से घिरे हुकमराँ
या तिजोरियों के
मजबूत पल्लों में महफ़ूज़
नफ़ा नुकसान का
हिसाब करते
भारत भाग्य
विधाता।
जवाब दोगी तुम
मदीना अख़्तर या मैं
जिसे तुम्हारे साथ
हुए बलात्कार में
पाकिस्तान फ़तह
नहीं
अपने ही कलेजे के टुकड़े छितरे
दिखाई दे रहे
हैं।
जब भी सोचता हूँ
मस्ल-ए-कश्मीर पर
दिखाई देती हैं
एशिया के स्वर्ग
के लिये लड़ती
दो मुल्कों की दो
फ़ौजें
जिनका कमांडर इन चीफ़ एक ही है।
कहीं गया नही है
वो कमांडर
यहीं कहीं है
परदे के पीछे से
खींचता डोरी
और
लड़ मरने को तैयार
हैं दो मुल्क
जो कल तक एक थे,
जिनके सीने में
धड़कता है एक ही दिल
जिनके जिस्मों
में दौड़ता है एक ही लहू।
मदीना अख़्तर!
कब तक चलेगा यह खेल सामराजी
निज़ाम जो बार बार
बदल कर है वही।
आज जब करवटें ले रही है बीसवीं सदी,
उसूरी नदी के
किनारे से पलट रही हैं फौजें,
ताश के पत्तों की
तरह ढह गई है बर्लिन की दीवार,
नाम्बिया के
रेगिस्तानों में
फूट पड़ा है आज़ादी
का चश्मा,
सीकचों से बाहर आ
गया है मंडेला,
क़दम क़दम ढह रहे
हैं
शोषण के गढ़ और क़िले,
अँगड़ाई ले रहा है नया संसार,
नया इतिहास रच
रहा है बिहार।
बदलाव का मोर्चा
खुल गया है
सर उठा कर बढ़ रहा
है
सदियों का दबा
कुचला इन्सान।
सुर्खुरु होकर
देखो
सलाम भेजता है
तुम्हें
भोजपुर-सहार।
राम के नाम
1
राम आखि़र आए
किसके काम।
सात सौ बरसों से
जपते नाम
एक युग हुआ तमाम
सुखिया को सब
आराम
दुखिया को बस राम
नाम।
राघव! आये किसके
काम?
2
राम!
राजधानी के
चौराहे पर
बहुमंज़िली
इमारतों से होड़ लेता
तुम्हारा कट आउट
बहुत बड़ा है।
कभी मर्यादा की
ख़ातिर
कभी अन्याय
अत्याचार के खि़लाफ़
तनी कमान पर बान
चढ़ा है।
धनुष तो तुम्हारे
हाथों की शोभा है राघव!
निशाना इस बार
कौन बना है?
3
राम!
गली कूचों
चाय पान की
दुकानों में टंगे
कैलेण्डरों में तुम्हारा ये अवतार
बाल्मीक तुलसी की
बनाई छवि सा है,
फिर भी कितना
जुदा है।
इस मोहक छवि के
पीछे बैठा
कौन मारण मंत्र
पढ़ रहा है?
तुम्हारा यह रुप
जिसने धरा है
कैसा मायावी है
दिख कर भी नहीं
दिखता है
सकल चर अचर उसके
अधीन
हाथ बाँधे खड़े है दिग्पाल
मुनाफ़ा मंत्र
दुहराता
जमाना उसका ग़ुलाम
कितने रुप धर कर
भी अरुप
और अरुपता में भी
कितने रुप धरे है।
इस बार उसने
हमारी नब्ज़ पर हाथ रखा है।
राघव!
इस बार उसने
तुम्हारा रुप धरा है।
4
राम!
उन्होंने फिर
सजाई है वानर सेना
लेकर तुम्हारा नाम।
कूच लंका नहीं
अयोध्या की ओर है
पत्थर और लकड़ी
नही हैं हाथों में
कमर में बँधे हैं कट्टे
या कुरते के ऊँचे
कॉलर से
झाँक रही है
रिवाल्वर की बेल्ट
सीनों पर शोभित
हैं रुद्र के अक्ष
पाँव पियादे भी नहीं
हैं वे
बुलेट और होंडा पर सवार
दौड़ रहे हैं
तपोवन के आर पार
फलों पर कर रहे
हैं
झपटकर अधिकार
नोच कर फेंक रहे हैं फूलों की डार।
उनके पीछे
रामनामी दुपट्टे ओढ़े
ईसा की पहली
शताब्दी के मंत्र बुदबुदाते
चले आ रहे हैं भालू
जटा जूट में पैने
दाँत छिपाये
सुमिरिनी में नख
निगाहें मधुकोषों
पर टिकी हुई।
तपोवन पर काल
व्यापा है
तपस्वी को कहाँ
ठाँव राघव!
5
राम!
सकल सुखधाम
तुम्हारी छवि
अभिराम
फिर भी
दहशत पैदा करता
है
नाम तुम्हारा मन
में
दंगों के सट्टे
में जब
लगते हैं सर के
दाम।
राघव! भयमोचन
नाम तुम्हारा बना
दिया हमने
दंगों का पैग़ाम।
6
राम!
तुम्हारा पावन
नाम
जिन दिनों बन गया
था
सर के धंधे का पैग़ाम
मुझे देता था
आराम
अमीर ख़ाँ साहब
का राग मालकौंस का
बिलम्बित स्वर
में गान-
‘जाके मन राम
बिराजैं’
और हमेशा का
वीरान
मेरा मन
बन जाता था बचपन
का
रामलीला मैदान।
किसी मज़बूत कंधे पर
सर टिका कर सोने
का वह आराम।
राघव!
राखो अमीर ख़ाँ
साहब का गान।
अमीर ख़ाँ साहब को सुनकर
1
राग मेघ
दर्द से नीली पड़ी
उमसती शाम की
छाती पर
घुमड़ते मेघ
जाने कब
काले से नीले हो गये
धीरे-धीरे
गहराइयों में
उतरता
नील आलाप
नील गूँ सब अन्दर
बाहर।
सोंधी उसाँस
छोड़ती है तन की गगरी।
पहले छीटों से जागी
अतृप्ति की आँच
और उमड़ बरसती है
तृप्ति की बरसात।
टेप पर बजता ‘मेघ’
कर देता है सब
कुछ
मेघ-मेघ।
लगता अब बरसा मैं
अब बरसा-अब बरसा
अपने सूखे तन मन पर
ख़ुद बरसा
बरसा
बरसा
बरसा।
अमीर खाँ साहब को सुनकर-2
राग चाँदनी केदार
सरगमी लहर पर
खेत करती
दूध धोई चाँदनी।
खुली अधखुली
दूधिया देह पर
बरसते इंद्रधनुषी
हरसिंगार।
गमक बढ़ाती गमक
महमह चाँदनी
गमकती।
तान की लहरों
मुखरित
मौन का संसार।
बोल तानों में
बोलता
झूमती गंध का
पारावार।
खुले आत्मा के अंध द्वार
खिला सहस्रार
अनहद सा बज रहा
राग चाँदनी
केदार।
बच्चा सुन्दर होता है
हर बच्चा सुन्दर
होता है
उतना ही सुन्दर
जितने असुंदर
होते हैं बड़े-बूढ़े।
भैंस साक्षात
यमराज का रुप लगे
उसका बच्चा आँखों
में
सुन्दरता का सागर
बन कर लहराता है।
शेर के नाम से रुह
काँपती है
पर उसका बच्चा
अपने कलेजे का टुकड़ा लगता है।
दिन रात गधे के बच्चे
सूअर के बच्चे
कहकर
इसको उसको
दुतकारते रहो
पर उन्हें तो गोद
में उठा लेने
चूम लेने को दिल करता है।
सुन्दर तो आदमी
का बच्चा भी होता है
आदमी जो अशरफ़
कहाता है
जिसका बच्चा पैदा
होते ही
चाँद की ओर हाथ
बढ़ाता है
इन्द्रधनुष सा
कायनात में
ख़ुशियाँ बोता है
फिर भी गटर में
पड़ा रोता है।
संवेदना को क्या
होता है?
दो पहिया तीन
पहिया चार पहिया
छै पहिया दस
पहियों के मशीनी दरिंदों के बीच
घबराया सड़क पार
करता बच्चा मुझे नहीं दिखता
दिखता भी है तो
हैंडिल मोड़
पैडिल मारता गुजर
जाता हूँ देखे बग़ैर।
बथुए का साग लिये
फटी लुगरी में
सिमटी
पाला खाती
अधखुली कलियों को
साल दर साल नख़ास
मोड़ पर
ठिठुरता देखता
हूँ बथुआ लिये
साल दर साल
बथुआ लेकर चला आता हूँ
गर्मागरम भरे
पराठे खाकर
अपना गर्म बिस्तर
कला संस्कृति की
पोथियों से गरमाने।
क्यों जानवर के
बच्चे पर ललक पड़ता हूँ
क्यों आदमी के
बच्चे से महट जाता हूँ।
आज भी
बाज़ के पंजे से
छूटी
जख़्मी गौरैया
बच्चा बना देती
है मुझे
घाव पर टिंचर
लगाता हूँ
चम्मच में चोंच
डुबा कर
दूध पिलाता हूँ
उड़ जाने पर ख़ुश
हो जाता हूँ
मरने का ग़म मनाता
हूँ।
आज भी
बाज़ के पंजों से
आती
चीं चीं की आवाज
दहला जाती है
हज़ारों बाजों के
पंजों में
लाखों बच्चों की
चीख़ नहीं सुन पाता हूँ
सुनकर अनसुना कर
जाता हूँ
दुनिया के राग
रंग में खो जाता हूँ।
बच्चे भोग रहे
हैं रौरव नरक
और मैं उनके लिये
सजाने में लगा
हूँ स्वर्गद्वार के तोरण
जो इस नरक को रोज़
बदतर बनाते जा
रहे हैं।
डूब मरना चाहिये
जिन हादसों पर
मैं खिसिया कर रह
जाता हूँ
जहाँ फूट पड़ना
चाहिये
दावानल की
चिन्गारी बनकर
सीली हुई
आतिशबाज़ी सा सुरसुराता हूँ
बर्फ़ की तरह
पिघलता हूँ
भूसे की आग सा
सुलगता हूँ
बोरसी बनकर जीता
हूँ।
हाये ज़ानवर के
बच्चों को प्यार करना
मेरे किसी काम न
आया
गौरैया के बच्चे
की चीख़ों ने
इन्सान बनाया
आदमी के बच्चे की
चीख़ सुनता सुनता
आदमी से जानवर बन
गया।
तमाम कुछ देखता
रहा
तमाम कुछ सुनता
रहा
घास खाता रहा
पागुर करता रहा।
जब से बंद है टिकटिक
जब से बंद हो गई
है
घड़ियों की टिकटिक
वक्त़
ख़ामोश टँगा रहता
है
मेरे बेडरुम की
दीवार पर
और मैं नींद का
माता
रातों रात सोता
रहता हूँ बेख़बर
जबकि उन्हीं
क्षणों में
नींद की मारी
मेरी बीवी
बेर-अबेर टार्च
जलाकर
टोहती है टाइम
यादों में टिकटिक
सुनती हुई।
वक्त़ का गुज़रना
अब सिर्फ़ रोशनी में दिखता है गाह वो सूरज की हो, या टार्च-बिल्ली की हो। तब भी नज़र आती है सिर्फ़ तीन सूइयों
की घुड़दौड़। एक गोल मैदान में चक्कर काटती। जिसमें सबसे बड़ी। हर सेकेन्ड की बाधा
लाँघती हमेशा आगे बनी रहती है।
अब कोई घंटी
कोई अलार्म
कुछ तो नहीं
चेताता मुझे वक्त़ पर।
(अलार्म बज़ने पर)
तन्द्रा में लोरी
सी सुनाई पड़ती है
नींद और गफ़लत से
उठ कर पाता हूँ
वक्त़ तो कभी का
गुज़र गया है
ट्रेन कब की निकल
गई है।
नाचार देखता हूँ
घड़ी को
जो नींद में लोरी
सुना
अलार्म की ड्यूटी
बजा
ख़ामोश तीन
टाँगों की दौड़ का
मैदान बनी हुई
है।
जगाना छोड़ सुलाने
लगी है घड़ी अब/(किताबों में लिखा है कभी गजर बजता था शहर में)/ बचपन की रातों में
सुने जेल के घंटे भी तो नहीं बजते अब/ जिनके साथ जुड़ी थीं आज़ादी की लड़ाई में
असहयोग के दौरान/ ज़िले के पहले डिक्टेटर के रुप में नमक कानून तोड़कर जेल गये
बाप की यादें और उसी के साथ/ भूसे वाली कोठरी में बँद कर देने की माँ की धमकियों
का डर/ जिसे ख़ुद उसमें बंद होकर दूर किया था कभी/ और फिर सत्तर के दशक में
कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की तमाम जेल हत्याएँ और जेल तोड़ कर उनकी फरारी के तमाम
वाक़यात/ धीरे-धीरे जेल का डर भूसे की कोठरी के डर की तरह चुपचाप निकल गया था जेल
गये बग़ैर।
मेरे बालिग़ होने
के दिन से
मेरी दाहिनी कलाई
पर आ चढ़ा है वक्त़
और लंबे क़दमों
नाप रहा है
अनन्त का
बिस्तार।
(मैं पहले ही दिन से
दाहिनी कलाई के
ऊपर बाँधता हूँ घड़ी
पिता उसी हाथ पर
नीचे बांधते थे)।
वक्त जिसे वामिक़
साहब शायद ख़ुदा मानते थे/कैसे चुपचाप
गुज़रता रहता है मेरी दाहिनी कलाई से/और मैं यह घुड़दौड़ का मैदान रोज़ चाभी भर कर
बाँध लेता हूँ अलसुबह/और दिन भर
देखता रहता हूँ कैसे बड़ी के पीछे घिसट रही है मझली और छोटी तो जैसे थमी है/हालाँकि
वक्त़ का सुराग़ वही देती है।
वक्त़ का सुराग़
देते
वह थिर भले दिखे डॉयल पर
बढ़ती रहती है
लगातार
दूसरी भले तेज चले या दौड़े
वक्त़ का पता
उनसे नहीं लगता
चंद किसान उत्तर
बंगाल के गुमनाम लेकिन वक्त को नाम
देने वाले छोटे से गाँव में माचिस
की तीलियों की तरह जले और देखते-देखते
जंगल दहक उठा/बीसियों हज़ार के जवान ख़ून से इसे बुझाने की कोशिश हुई/लेकिन वह आग ही क्या जो ख़ून पाकर और न भड़क
उठे/सौ धारा में बँटे गंगा सागर के डेल्टा पर खड़े होकर/गंगा और गंगासागर की मृत्यु
की घोषणा करने वाले सांसदों
को/इतिहास के कूड़ेदान में पहुँचा कर/संसद के रंगमंच पर आ खड़ा होता है अशान्त
पूर्वोत्तर की एक गुमनाम सी जनजाति का प्रतिनिधि/पिघल रहा है विन्ध्याचल का सदियों
से घनीभूत दर्द/दक्षिण से लौटेगा नहीं कोई अगस्त/सिर उठाओ/श्री काकुलम के साम्राज्यवाद
विरोधी छंद पर ताल दे रहे हैं चिल्का झील के मछेरे/एक नन्ही सी जेब घड़ी के डॉयल पर
आकार ले रहा है नये भारत का नया
सपना।
तुम घड़ी देखो न
देखो
वक्त़ के क़दम बढ़
रहे हैं
चुपचाप अपनी गति
से।
घड़ी की सूइयाँ जो
कहें
चाहे जिस गति
विधान से घूमें
सुस्त चलें या तेज़ होती रहें
वक्त़ का क़द नहीं
नाप सकती हैं।
वक्त़ का क़द कुछ
दूसरा है।
वह किसी घड़ी में
क़ैद नही है।
वह तमाम घड़ियों
से जुदा
तमाम घड़ियों से
बड़ा है।
पर जब तक चाभी
उलटी न घूमे
यह मंज़र साफ़ नहीं
होता है।
जब कोई चाभी उलटी
घुमाता है
तब छोटा दौड़ता
मामला तेजी से
पीछे घिसटता
और बड़ा अपनी जगह
खड़ा थरथराता है।
लेकिन तब वक्त़ का
चालू गणित
गड़बड़ा और खड़बड़ा
चुका होता है
तब देश-काल नही
होता है
सदियाँ सिमट आती
हैं एक पल में
और वह पल
सदियों तक फैल
जाता है।
हमारे फ़य्याज़! हमारे जसराज!
गुजरात की भट्ठी
में सुलगते तन मन पर
बरसात के पहले मेह सी ख़बर
आफ़ताब-ए-मूसीक़ी
फ़य्याज़ ख़ाँ साहब
का मकबरा जिसे
हुल्लड़िया
हिन्दुत्व ने तोड़ दिया है
अपने ख़रचे से
फिर से बनवायेंगे
पंडित जसराज।
बारिश का पहला
छींटा
और उमसाता है।
क्या करेंगे
पंडिज जसराज
क्या करेंगे
अगर वहाँ बैठ गये
होंगे
हुल्लड़िया हनुमान?
तब क्या करेंगे
पंडित जी!
नाद ब्रह्म और
साक्षात ब्रह्म में किसे चुनेंगे?
नाद ब्रह्म का
मंदिर बनवाने
अपने ही आराध्य
की प्रतिमा
हटाने की माँग
करेंगे?
ऐसी माँग करेंगे
जो जवाहर लाल
जैसे प्रधानमंत्री के आदेश
न करा सके आज़ादी
की भोर में
अयोध्या की एक
मस्जिद से
जो आज नाम शेष है
उसी ‘जनभावना’ के हाथों
जिसका हवाला दिया
था
तत्कालीन
मुख्यमंत्री ने
नेहरु को जवाब
में।
(अब तो जनभावना के
सौदागर
रोज़ दावे कर रहे
हैं कि
खि़लाफ़ आने पर
सर्वोच्च
न्यायालय का भी फ़ैसला नहीं मानेंगे
मेरे सामने
सवाल इस तरह नहीं
इस तरह है
चुल्लू भर पानी
में
धर्म संस्कृति के
जलयान दौड़ाता
काशी का विद्वत समाज
प्रतिमा हटवा कर
लौटे
पंडित जसराज का
इस बार संकट मोचन
में
कैसा स्वागत
करेगा?
और मंदिर की
सीढ़ियाँ चढ़ते
आपके पाँव तो न
लड़खड़ायेंगे?
बरसों के सधे सुर
इस बार गड़बड़ा तो
न जायेंगे?
तब आप क्या
करेंगे पंडित जी
जब वली गुजराती
की दरगाह की तरह
वहाँ बन गई होगी
सड़क
फ़र्राटे से दौड़
रही होंगी मल्टीनेशनल कारें।
आप क्या करेंगे
पंडित जी
ट्रक ड्राइवरों
की तरह
बग़ल से गुज़र
जायेंगे
या फिर सड़क जाम
करेंगे।
और यही करते रहे
तो
रोज़ नये आफ़ताब
वैसे उगायेंगे हमारे
दिलों में,
जहाँ पंडित
मल्लिकार्जुन मंसूर
‘प्रथम अल्लाह’
और
अमीर ख़ाँ साहब
‘जिनके मन राम
बिराजे’ गाते हैं
और बड़े ग़ुलाम अली
खाँ
‘हरी ओम् तत्सत’
सुनाते हैं
और विश्वनाथ की
ड्योढ़ी से बहिष्कृत
बिसमिल्ला ख़ाँ
सुबह रियाज़ शुरू
करते हैं
मंदिर की ओर मुँह
करके
हर सुबह
पहला राग बाबा को
सुनाते हैं।
आप क्या कर
पायेंगे पंडित जी
आप जानें या
वक्त़
मगर आपके संकल्प
से
मेरे मन में बन
रहा है
सात सुरों का
सतरंगा महल
जिसमें आबाद हैं
ख़ुसरो, कबीर, फरीद, चंडीदास, बुल्लेशाह, वारिश, शंकरदेव, नानक, रहीम, मीरा, नामदेव, दादू, रज़ब, तुकाराम, कुतबन, जायसी, रसखान, रैदास, शाह अब्दुल लतीफ़ और हब्बा ख़ातून।
यह भी फ़य्याज़
ख़ाँ का मक़बरा है
लेकिन इसे नही मिटा
पायेंगे
साझा संस्कृति के
दुश्मन तमाम।
वे तोड़ सकते हैं
मस्जिद, मक़बरे और दरगाहें
वे तोड़ सकते हैं
बामियान के बुद्ध
नहीं तोड़ सकते
हैं मगर
हमारे संकल्प
हमारी वरासत
जो साझा है
साझा रहेगी।
जो आप हैं पंडित
जी!
जो फ़य्याज़ ख़ाँ
हैं।
जो हम हैं
हमारा प्यारा देश
है।
गुल अख़्तर को नाचते गाते देखना
कमानी आडीटोरियम
के
बैक ड्रॉप पर बना
चक्र जैसा डिजाइन
उसके कदमों की
आहट पर
सहस्रदल कमल बन
गया अचानक
झर रहा
रस
अनहद।
कटने को तैयार
गेहूँ के खेतों की पगडंडियों पर
गाती दौड़ती
हब्बाख़ातून
सोने में सुगन्ध
भरते
वादियाँ-उचाइयाँ
महकाते।
साउथ ब्लाक में
बज रहा है
कोई और राग
कश्मीर
लेकिन ख़ुद कश्मीर
में
बुलेट राग पर
ताल दे रहे हैं
ग्रेनेड।
सूफ़ी समाँ गाकर
अभी-अभी गये हैं
शास्त्रीय गायक
और आडीटोरियम में
थिरक रहा है
कश्मीरी लोकमन।
और वहाँ कश्मीर
में-
सरकारी आतंकी
गोलियों की जुगलबंदी
और वही राग
सामराजी
जाने कब से
जाने कब तक के
लिये।
अजानी भाषा
बोल अपरिचित
किस पुलक से भर
रहे मन-प्राण
फैलती जा रही हैं
मुझको घेरे
ये भारी मोटी
दीवारें
फैलता जा रहा हूँ
मैं भी इनके साथ
छलक रहा है मुझमें मेरा विस्तार
सब कुछ सुन्दर
ख़ुश-ख़ुश
सब कुछ।
झेलम से जमुना तक
जिस लोक मन ने
ताना है
रागिनी का यह
चँदोबा
वह ख़ुद?
हज़ारों हज़ार अनाथ
बच्चे
सारे कश्मीर से आ
आकर
मेरा दामन पकड़
रहे हैं
बहुत भारी हो गया
है
यह बोसीदा कफ़न
नहीं फुदकता
गुल अख़्तर के साथ
मन
जो उगी थी रोम
रोम में
महक रही है मन
गुलशन में।
यह कब शुरु हो
गया
रंगीन फोकस का
इन्द्रजाल
रंग बदलते हैं
जैसे पहाड़ के मन
और जब लाल जमकर
बैठ जाता है
मंच ख़ून भरी डल
में बदल जाता है
जिसमें डूबकर
ख़ुदकुशी कर ली
है
हब्बा ख़ातून ने
गुल अख्तर
डूब उतरा रही है।
और मैं-?
डरपता किनारे
बैठा हूँ।
कहाँ खिसक गये
वादक चुपचाप।
ख़ून सने मंच पर
दोस्त-दुश्मन
फ़ौजे
बजा रही हैं फ़ौजी
बूट
और नाच रही हैं
विलायती डिस्को
खून के छींटे उड़
रहे हैं
इधर-उधर
आडीटोरियम भर।
फ़ोकस का
इन्द्रजाल टूटते ही
थम गया है नाच
गा रही है कुछ
गुलअख़्तर
चिरपरिचित
इस अपरिचित बोली
बानी के
आखर किसके हैं
लल्लद्यद या
हब्बा ख़ातून के
नुंदरुसीं के,
ख़ुदबनशाह के
या महज़ूर के
कैसी तो बानी
शब्द पल्ले नहीं पड़ते
अर्थ उजागर हैं
कानों में पड़ने
के पहले।
किस बुलंदी की
गूँजें हैं ये
शंकराचार्य/तख़्ते
सुलेमाँ की
पीर पंजाल से
टकराती
लोलाब की घाटी
गुँजाती
बानिहाल पार
मिर्ज़ा साहिबाँ
का दर्द समेटे
अमीर ख़ुसरो की
दिल्ली पर यह
कौन सा राग बरपा
है
जो यहाँ भी अधूरा
है
वहाँ भी अधूरा है
आधा गुल अख़्तर
में सो रहा है
आधा मुझमें रो
रहा है।
लय सुरताल की त्रिवेणी
में निमग्न
हलका
और हलका हुआ जा
रहा हूँ
ईथर की तरह हर
कहीं हूँ
कहीं नहीं हूँ।
बह रहा हूँ
दिशाओं के छोर
नापता
पता नहीं यहाँ
हूँ
पता नहीं कहाँ
हूँ।
अभी अभी
गुल अख़्तर के साथ
गा रहा था
झूम रहा था
अब वो जाने कहाँ
है- मैं कहाँ हूँ।
जाने कहाँ को चला
था इस शाम
उसे नाचते गाते
देखते
देख कर जाते
कहाँ चला जा रहा
हूँ।